Saturday, December 17, 2011


गीत -  रजा बनारस  !
 
नेमतों से सजा बनारस
नो टेंशन बस मजा बनारस
               रजा बनारस रजा बनारस .
 
फक्कड़पन  है मस्ती भी है
अव्वल आला हस्ती भी है
घाट घाट पर बिखरा जीवन
सजी हुई गिरहस्ती भी है
ऊंची फहरी ध्वजा बनारस
               रजा बनारस रजा बनारस .
 
पढ़े पढावे रंग जमावे
बम भोले का भंग  जमावे
होंगे ऊंचे महल अटारी
काशी कल्चर उन्हें चिढ़ावे
नक्कालों की कज़ा बनारस
              रजा बनारस रजा बनारस .
 
कला संस्कृति खान पान में
चतुराई  और दीन - दान में
गंगा तीरे ठाट बाट जो 
नहीं कहीं और किसी शान में
कायम चौचक फ़ज़ा बनारस
                     रजा बनारस रजा बनारस  . 
 
            
                                     - अभिनव अरुण
                                         {080112011}

कविता : - उठा परचम

कविता : -  उठा परचम  !
 
चुप  मत रह तू खौफ से 
 
कुछ बोल 
बजा वह ढोल 
जिसे सुन खौल उठें सब  
 
ये चुप्पी मौत
मरें क्यों हम
मरे सब
 
हैं जिनके हाँथ रंगे से
छिपे दस्तानों भीतर
 
जो करते वार
हरामी वार टीलों के पीछे छिपकर
तू उनको मार सदा सौ बार
निकलकर मांद से बाहर
 
कलम को मांज 
हो पैनी धार
सरासर वार सरासर वार
पड़ेंगे खून के छींटे
 
तू उनको चाट
तू काली बन
जगाकर काल
पहन ले मुंड की माला
 
मशअलें बुझ न जाएँ
कंस खुद मर न जाएँ
तू पहले चेत
बिछा दे खेत
भले तू एकल एकल
 
उठा परचम
दिखा दमखम
निरर्थक न हो बेकल
यहाँ कुरुक्षेत्र सजा है
युद्ध भी एक कला  है
 
 
                   -  अभिनव अरुण
                       [14122011]

Monday, May 9, 2011

ग़ज़ल:- कुबड़े काने राजा के फरमान बहुत हैं



ग़ज़ल:- कुबड़े काने राजा के फरमान बहुत हैं

अपने शहर में झूठ के चर्चे आम बहुत हैं ,
सच कहने वालों के सर इलज़ाम बहुत हैं |

इस अखबार के हर पन्ने पर लूट खसोट ,
तुम कहते हो दुनिया में इंसान बहुत हैं |

जिस लड़की को नुक्कड़ पर तुमने था छेड़ा ,
उस लड़की के पापा अब परेशान बहुत हैं |

सच्चाई की आदर्शों की अलख जगाते ,
ऐसे कवि को मिलते कहाँ इनाम बहुत हैं |

एक मुनादी आज सुबह इस शहर में घूमी ,
कुबड़े काने राजा के फरमान बहुत हैं |

Friday, March 25, 2011

ग़ज़ल :-हौसले की उड़ान है बाकी


ग़ज़ल :-हौसले की उड़ान है बाकी

और कुछ इत्मीनान है बाकी ,
रास्तों में ढलान है बाकी |

कील कांटे सलीब बिकने लगे ,
कौन ईसा महान है बाकी |

परकटा देख परिंदा बोला ,
हौसले की उड़ान है बाकी |

एक मुद्दत से निशाने पर हूँ ,
तीर चढ़ना कमान है बाकी |

देख ली आज भारतीय संसद ,
और कोई दुकान है बाकी |

घर तो कबके गये हैं टूट सभी ,
सबका अपना मकान है बाकी |

गोली नाथू चला रहा अब तक ,
तो भी गाँधी में जान है बाकी |

गांव में चिमनियां उग आई हैं ,
मुश्किलों में सीवान है बाकी |

है ज़हर में बुझा हरेक दाना ,
खेत में क्यों मचान है बाकी |

ग़ज़ल :-हस्बे मामूल मै रोशन ज़रा शमा कर लूं


ग़ज़ल :-हस्बे मामूल मै रोशन ज़रा शमा कर लूं
वक्त वीरान है निशानियां फ़ना कर लूं ,
अपना घर आप जलाने का हौसला कर लूं |

आपकी बज़्म में अशआर कई लाया हूँ ,
हस्बे मामूल मै रोशन ज़रा शमा कर लूं |

जिन तजुर्बों ने मुझे शायरी सिखायी है ,
वक्ते रुखसत खुशी से उन्हें विदा कर लूं |

टाँक दूं झीळ से बदन पे चांदनी का लिबास ,
सुबह से पेश्तर चाहूँ गुनाह इतना कर लूं |

गो कि कुछ लोग मेरे मरने की दुआ में हैं ,
मुझको मोहलत दे खुदा उनको मै सजदा कर लूं |

अब तो चेहरों पे कई चेहरे लगे हैं या रब ,
किसको बेगाना करूँ किसको मैं अपना कर लूं |

Wednesday, March 2, 2011

ग़ज़ल : - दाग़ दो चार और पाता हूँ


ग़ज़ल : - दाग़ दो चार और पाता हूँ
याद तेरी में गुनगुनाता हूँ
ज़िंदगी को करीब पाता हूँ |

शीत कहती मुझे तू छू कर देख
और मैं दूब सा शरमाता हूँ |

तुझपे फबते हैं सोलहों श्रृंगार
मैं ही शीशा हूँ बिखर जाता हूँ |

तेरे पहलू में टंका एक गोटा
बदन को छू कर सिहर जाता हूँ |

भांप न ले की चाहता हूँ तुझे
इसी संकोच में घबराता हूँ |

रोज लिखता हूँ पातियाँ दस बीस
और फिर तुझसे मैं छुपाता हूँ |

इश्क पाकीज़ा रूहानी एहसास
दफअतन डूबता उतराता हूँ |

जितना धोता हूँ ये दुनियाबी लिबास
दाग़ दो चार और पाता हूँ |

नूर तेरा अव्वल उपाया है
नासमझ हूँ मैं भूल जाता हूँ |

(निर्गुण ख़याल की ग़ज़ल )

ग़ज़ल:- केंचुल में ज़हरीले लोग


ग़ज़ल:- केंचुल में ज़हरीले लोग 

आकर्षक चमकीले लोग
केंचुल में ज़हरीले लोग |

आत्ममुग्धता की परिणति हैं
सुन्दर सुघड सजीले लोग |

भूख की आंच पे चढ़ते हैं नित
खाली पेट पतीले लोग |

झंझावाती जीवन सागर
हम शंकित रेतीले लोग |

चीर हरण करते आँखों से
कुंठाओं के टीले लोग |

स्वार्थ की धूप में पानी पानी
बे उसूल बर्फीले लोग |

पथरीली चौपाल देश की
चर्चा में पथरीले लोग |

गांव में आकर शहर खा गये
परिश्रमी फुर्तीले लोग |

गिरगिट जैसा रंग बदलते
चापलूस चमचीले लोग |

ज़्यादातर अव्वल आला हैं
अवसरवादी ढीले लोग |

ग़ज़ल :- सच के व्यापार में नफा क्या है



ग़ज़ल :- सच के व्यापार में नफा क्या है
चार पैसा उसे हुआ क्या है
पूछता फिर रहा खुदा क्या है |

हर जगह तो यही करप्शन है
रोग बढ़ता गया दवा क्या है |

तुम ही रक्खो ये नारे वादे सब
पांच वर्षों का झुनझुना क्या है |

तेरे जाने पर अब ये जाना माँ
बद्दुआ क्या है और दुआ क्या है |

हम मलंगों से पूछकर देखो
सच के व्यापार में नफा क्या है |

और बढ़ जाती है व्यथा मेरी
जब कोई पूछता कथा क्या है |

वक्त रुकता कहाँ किसी के लिये
दुश्मनी ही सही जता क्या है |

ज़िंदगी मौत का साया है तू
साथ जितना भी है निभा क्या है |

अब तो मंदिर भी लूटे जाते हैं
याचना से यहाँ मिला क्या है |

Sunday, February 27, 2011

गज़ल : गिनती के अशआर


गज़ल : गिनती के अशआर
झूठ से इसको नफरत सी है सच्चाई को प्यार कहे ,
मेरा दिल तो जब भी बोले दो और दो को चार कहे |

मर खप कर  एक बाप जुटाता बेटी का दहेज ,
लेने वाले की बेशर्मी वो इसको उपहार कहे |

भ्रष्टाचार घोटालों के पहियों पर रेंग रही ,
लानत है उस शख्स पे जो इसको सरकार कहे |

जैसी करनी वैसी भरनी अब नहीं दीखता है ,
हम कैसे इस बात को माने कहने को संसार कहे |

मूंगे मोती मेवे से चाहे  भर दो जितना ,
 सागर से आयी हर मछली जार को जार  कहे |

हमें आईना दिखलाते हैं गिनती के अशआर ,
यूं तो बीते एक दशक में हमने शेर हज़ार कहे |