Friday, March 25, 2011

ग़ज़ल :-हौसले की उड़ान है बाकी


ग़ज़ल :-हौसले की उड़ान है बाकी

और कुछ इत्मीनान है बाकी ,
रास्तों में ढलान है बाकी |

कील कांटे सलीब बिकने लगे ,
कौन ईसा महान है बाकी |

परकटा देख परिंदा बोला ,
हौसले की उड़ान है बाकी |

एक मुद्दत से निशाने पर हूँ ,
तीर चढ़ना कमान है बाकी |

देख ली आज भारतीय संसद ,
और कोई दुकान है बाकी |

घर तो कबके गये हैं टूट सभी ,
सबका अपना मकान है बाकी |

गोली नाथू चला रहा अब तक ,
तो भी गाँधी में जान है बाकी |

गांव में चिमनियां उग आई हैं ,
मुश्किलों में सीवान है बाकी |

है ज़हर में बुझा हरेक दाना ,
खेत में क्यों मचान है बाकी |

ग़ज़ल :-हस्बे मामूल मै रोशन ज़रा शमा कर लूं


ग़ज़ल :-हस्बे मामूल मै रोशन ज़रा शमा कर लूं
वक्त वीरान है निशानियां फ़ना कर लूं ,
अपना घर आप जलाने का हौसला कर लूं |

आपकी बज़्म में अशआर कई लाया हूँ ,
हस्बे मामूल मै रोशन ज़रा शमा कर लूं |

जिन तजुर्बों ने मुझे शायरी सिखायी है ,
वक्ते रुखसत खुशी से उन्हें विदा कर लूं |

टाँक दूं झीळ से बदन पे चांदनी का लिबास ,
सुबह से पेश्तर चाहूँ गुनाह इतना कर लूं |

गो कि कुछ लोग मेरे मरने की दुआ में हैं ,
मुझको मोहलत दे खुदा उनको मै सजदा कर लूं |

अब तो चेहरों पे कई चेहरे लगे हैं या रब ,
किसको बेगाना करूँ किसको मैं अपना कर लूं |

Wednesday, March 2, 2011

ग़ज़ल : - दाग़ दो चार और पाता हूँ


ग़ज़ल : - दाग़ दो चार और पाता हूँ
याद तेरी में गुनगुनाता हूँ
ज़िंदगी को करीब पाता हूँ |

शीत कहती मुझे तू छू कर देख
और मैं दूब सा शरमाता हूँ |

तुझपे फबते हैं सोलहों श्रृंगार
मैं ही शीशा हूँ बिखर जाता हूँ |

तेरे पहलू में टंका एक गोटा
बदन को छू कर सिहर जाता हूँ |

भांप न ले की चाहता हूँ तुझे
इसी संकोच में घबराता हूँ |

रोज लिखता हूँ पातियाँ दस बीस
और फिर तुझसे मैं छुपाता हूँ |

इश्क पाकीज़ा रूहानी एहसास
दफअतन डूबता उतराता हूँ |

जितना धोता हूँ ये दुनियाबी लिबास
दाग़ दो चार और पाता हूँ |

नूर तेरा अव्वल उपाया है
नासमझ हूँ मैं भूल जाता हूँ |

(निर्गुण ख़याल की ग़ज़ल )

ग़ज़ल:- केंचुल में ज़हरीले लोग


ग़ज़ल:- केंचुल में ज़हरीले लोग 

आकर्षक चमकीले लोग
केंचुल में ज़हरीले लोग |

आत्ममुग्धता की परिणति हैं
सुन्दर सुघड सजीले लोग |

भूख की आंच पे चढ़ते हैं नित
खाली पेट पतीले लोग |

झंझावाती जीवन सागर
हम शंकित रेतीले लोग |

चीर हरण करते आँखों से
कुंठाओं के टीले लोग |

स्वार्थ की धूप में पानी पानी
बे उसूल बर्फीले लोग |

पथरीली चौपाल देश की
चर्चा में पथरीले लोग |

गांव में आकर शहर खा गये
परिश्रमी फुर्तीले लोग |

गिरगिट जैसा रंग बदलते
चापलूस चमचीले लोग |

ज़्यादातर अव्वल आला हैं
अवसरवादी ढीले लोग |

ग़ज़ल :- सच के व्यापार में नफा क्या है



ग़ज़ल :- सच के व्यापार में नफा क्या है
चार पैसा उसे हुआ क्या है
पूछता फिर रहा खुदा क्या है |

हर जगह तो यही करप्शन है
रोग बढ़ता गया दवा क्या है |

तुम ही रक्खो ये नारे वादे सब
पांच वर्षों का झुनझुना क्या है |

तेरे जाने पर अब ये जाना माँ
बद्दुआ क्या है और दुआ क्या है |

हम मलंगों से पूछकर देखो
सच के व्यापार में नफा क्या है |

और बढ़ जाती है व्यथा मेरी
जब कोई पूछता कथा क्या है |

वक्त रुकता कहाँ किसी के लिये
दुश्मनी ही सही जता क्या है |

ज़िंदगी मौत का साया है तू
साथ जितना भी है निभा क्या है |

अब तो मंदिर भी लूटे जाते हैं
याचना से यहाँ मिला क्या है |