Tuesday, October 30, 2012

ग़ज़ल - बादलों और बिजलियों की नेमतें

 
बोलते चेहरों को सुनता ही रहा ,
वो अदद एक ख्वाब बुनता ही रहा |
 
बादलों और बिजलियों  की नेमतें  ,
बारिशों की बूँद चुनता ही रहा |
 
गीत के मुखड़े पे चर्चा खूब की ,
अंतरे चुपचाप गुनता ही रहा |
 
हर ग़ज़ल मेरी उदासी का किला ,
शेर दीवारों में चुनता ही रहा |
क्या कहूँ जबसे हूँ आया शहर में ,
गाँव की चाहत में घुनता ही रहा |
 
ज़िन्दगी रुई के फाहों की तरह ,
सांस की  तारों से धुनता ही रहा |
 
चाहतों की आग थी जलती रही ,
दिल मेरा खामोश भुनता ही रहा |
 
                  - अभिनव अरुण
                       { 25082012 }

कवि , उसकी कविता और तुम !

 
हाँ उन कविताओं को भी रचा था उसने उसी वेदना के साथ
जिनपर तुमने तालियाँ नहीं बजायीं
औंर  कई कविताओं को रचकर वह देर तक हँसा था खुद पर
जिन्हें सुनकर तुम झूम उठे थे
जानते हो लिखना और सुनाना दो  अलग अलग विधाएं हैं
और उन सब  पर हावी है रोज़ी रोटी की विधा !
कैसे सुनाता वह समूचे जोश और उत्साह से अपनी कविता
जबकि तुम्हारे  हज़ार फूलों वाले चटख रोशन मंच की  
धवल रेशमी चादर पर तने  चुनौती देते उस माइक के सामने
मंच पर खड़े कवि का पूरा ध्यान था अपनी ज़ुराबों से झांकती उँगलियों पर
वह सोच रहा था जाने आज मिलने वाले पारितोषिक से
कितने दिन सरकेगी गृहस्थी की गाडी !!
वह जिसे सभी कहते लो यह कवि बन गया पत्रकार बन गया
जैसे बन ही नहीं सकता था वह कुछ और साहब या चपरासी या गुंडा मवाली ही
जिसका विवाह पत्र देख वधू पक्ष के रिश्तेदार ने कहा था
आप लोगों को क्या यही मिला कवि लेखक और पत्रकार
वह अक्सर सोचता है  क्यों पढ़ी थीं उसने वह सब किताबें
बोल्शेविक क्रांति  डॉ ज़िवागो  गोर्की  टालस्टाय
और मार्क्स में क्या मिला था उसे
क्या सृजन का वह सूत्र मात्र जो आज बाज़ार में बनकर रह गया है एक उत्पाद भर
महत्वपूर्ण हो गयी है जहां दूकान की साज सज्जा विपणन और पैकेजिंग 
और उसकी फितरत मिज़ाज या नियति कि वह नहीं बन सका 
कविता का कुशल कारोबारी     !!!
 
                                                          - अभिनव अरुण
                                                             {23092012}

Saturday, December 17, 2011


गीत -  रजा बनारस  !
 
नेमतों से सजा बनारस
नो टेंशन बस मजा बनारस
               रजा बनारस रजा बनारस .
 
फक्कड़पन  है मस्ती भी है
अव्वल आला हस्ती भी है
घाट घाट पर बिखरा जीवन
सजी हुई गिरहस्ती भी है
ऊंची फहरी ध्वजा बनारस
               रजा बनारस रजा बनारस .
 
पढ़े पढावे रंग जमावे
बम भोले का भंग  जमावे
होंगे ऊंचे महल अटारी
काशी कल्चर उन्हें चिढ़ावे
नक्कालों की कज़ा बनारस
              रजा बनारस रजा बनारस .
 
कला संस्कृति खान पान में
चतुराई  और दीन - दान में
गंगा तीरे ठाट बाट जो 
नहीं कहीं और किसी शान में
कायम चौचक फ़ज़ा बनारस
                     रजा बनारस रजा बनारस  . 
 
            
                                     - अभिनव अरुण
                                         {080112011}

कविता : - उठा परचम

कविता : -  उठा परचम  !
 
चुप  मत रह तू खौफ से 
 
कुछ बोल 
बजा वह ढोल 
जिसे सुन खौल उठें सब  
 
ये चुप्पी मौत
मरें क्यों हम
मरे सब
 
हैं जिनके हाँथ रंगे से
छिपे दस्तानों भीतर
 
जो करते वार
हरामी वार टीलों के पीछे छिपकर
तू उनको मार सदा सौ बार
निकलकर मांद से बाहर
 
कलम को मांज 
हो पैनी धार
सरासर वार सरासर वार
पड़ेंगे खून के छींटे
 
तू उनको चाट
तू काली बन
जगाकर काल
पहन ले मुंड की माला
 
मशअलें बुझ न जाएँ
कंस खुद मर न जाएँ
तू पहले चेत
बिछा दे खेत
भले तू एकल एकल
 
उठा परचम
दिखा दमखम
निरर्थक न हो बेकल
यहाँ कुरुक्षेत्र सजा है
युद्ध भी एक कला  है
 
 
                   -  अभिनव अरुण
                       [14122011]

Monday, May 9, 2011

ग़ज़ल:- कुबड़े काने राजा के फरमान बहुत हैं



ग़ज़ल:- कुबड़े काने राजा के फरमान बहुत हैं

अपने शहर में झूठ के चर्चे आम बहुत हैं ,
सच कहने वालों के सर इलज़ाम बहुत हैं |

इस अखबार के हर पन्ने पर लूट खसोट ,
तुम कहते हो दुनिया में इंसान बहुत हैं |

जिस लड़की को नुक्कड़ पर तुमने था छेड़ा ,
उस लड़की के पापा अब परेशान बहुत हैं |

सच्चाई की आदर्शों की अलख जगाते ,
ऐसे कवि को मिलते कहाँ इनाम बहुत हैं |

एक मुनादी आज सुबह इस शहर में घूमी ,
कुबड़े काने राजा के फरमान बहुत हैं |

Friday, March 25, 2011

ग़ज़ल :-हौसले की उड़ान है बाकी


ग़ज़ल :-हौसले की उड़ान है बाकी

और कुछ इत्मीनान है बाकी ,
रास्तों में ढलान है बाकी |

कील कांटे सलीब बिकने लगे ,
कौन ईसा महान है बाकी |

परकटा देख परिंदा बोला ,
हौसले की उड़ान है बाकी |

एक मुद्दत से निशाने पर हूँ ,
तीर चढ़ना कमान है बाकी |

देख ली आज भारतीय संसद ,
और कोई दुकान है बाकी |

घर तो कबके गये हैं टूट सभी ,
सबका अपना मकान है बाकी |

गोली नाथू चला रहा अब तक ,
तो भी गाँधी में जान है बाकी |

गांव में चिमनियां उग आई हैं ,
मुश्किलों में सीवान है बाकी |

है ज़हर में बुझा हरेक दाना ,
खेत में क्यों मचान है बाकी |

ग़ज़ल :-हस्बे मामूल मै रोशन ज़रा शमा कर लूं


ग़ज़ल :-हस्बे मामूल मै रोशन ज़रा शमा कर लूं
वक्त वीरान है निशानियां फ़ना कर लूं ,
अपना घर आप जलाने का हौसला कर लूं |

आपकी बज़्म में अशआर कई लाया हूँ ,
हस्बे मामूल मै रोशन ज़रा शमा कर लूं |

जिन तजुर्बों ने मुझे शायरी सिखायी है ,
वक्ते रुखसत खुशी से उन्हें विदा कर लूं |

टाँक दूं झीळ से बदन पे चांदनी का लिबास ,
सुबह से पेश्तर चाहूँ गुनाह इतना कर लूं |

गो कि कुछ लोग मेरे मरने की दुआ में हैं ,
मुझको मोहलत दे खुदा उनको मै सजदा कर लूं |

अब तो चेहरों पे कई चेहरे लगे हैं या रब ,
किसको बेगाना करूँ किसको मैं अपना कर लूं |