ग़ज़ल : - दाग़ दो चार और पाता हूँ
याद तेरी में गुनगुनाता हूँ
ज़िंदगी को करीब पाता हूँ |
ज़िंदगी को करीब पाता हूँ |
शीत कहती मुझे तू छू कर देख
और मैं दूब सा शरमाता हूँ |
तुझपे फबते हैं सोलहों श्रृंगार
मैं ही शीशा हूँ बिखर जाता हूँ |
बदन को छू कर सिहर जाता हूँ |
भांप न ले की चाहता हूँ तुझे
इसी संकोच में घबराता हूँ |
रोज लिखता हूँ पातियाँ दस बीस
और फिर तुझसे मैं छुपाता हूँ |
इश्क पाकीज़ा रूहानी एहसास
दफअतन डूबता उतराता हूँ |
जितना धोता हूँ ये दुनियाबी लिबास
दाग़ दो चार और पाता हूँ |
नूर तेरा अव्वल उपाया है
नासमझ हूँ मैं भूल जाता हूँ |
(निर्गुण ख़याल की ग़ज़ल )
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