Wednesday, March 2, 2011

ग़ज़ल : - दाग़ दो चार और पाता हूँ


ग़ज़ल : - दाग़ दो चार और पाता हूँ
याद तेरी में गुनगुनाता हूँ
ज़िंदगी को करीब पाता हूँ |

शीत कहती मुझे तू छू कर देख
और मैं दूब सा शरमाता हूँ |

तुझपे फबते हैं सोलहों श्रृंगार
मैं ही शीशा हूँ बिखर जाता हूँ |

तेरे पहलू में टंका एक गोटा
बदन को छू कर सिहर जाता हूँ |

भांप न ले की चाहता हूँ तुझे
इसी संकोच में घबराता हूँ |

रोज लिखता हूँ पातियाँ दस बीस
और फिर तुझसे मैं छुपाता हूँ |

इश्क पाकीज़ा रूहानी एहसास
दफअतन डूबता उतराता हूँ |

जितना धोता हूँ ये दुनियाबी लिबास
दाग़ दो चार और पाता हूँ |

नूर तेरा अव्वल उपाया है
नासमझ हूँ मैं भूल जाता हूँ |

(निर्गुण ख़याल की ग़ज़ल )

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